ravaa.n-davaa.n dhaar hai nadi ki ग़ज़ल 12 चहार अतराफ़ में जुदा हो रवां दवां धार है नदी की हथेलियों में उठाके कतरे समझ रहा है कि कुछ कमी की कभी नहीं ख़्वेश-परवरी को सियाह बातिल की पैरवी की जहां कहीं बात जब भी की तो क़सम से ईमान की लगी की ख़बीस मौजें हुईं कशाकश हवाओं का रुख सता रहा है हिसार-ए-शोला हुए किनारे ख़तर में है नाव सरबरी की बहुत ही नाराज है जमाना फ़कत हमारी उसी ख़ता पर ख़ता जो छुप कर करे जमाना बही जो हमने खुला खुली की Aamir husain अतराफ़=दिशाएँ रवां दवां =ज़ोर से बहता हुआ ख़्वेश-परवरी =अपने लोगों का पालन पोषण करना बातिल=झूठ ख़बीस =दुष्ट कशाकश=उलझन हिसार-ए-शोला =आग का घेरा सरबरी =पथप्रदर्शक का कार्य, खुला खुली =खुल्लम-खुल्ला
ग़ज़ल 10 अग़्यार में बस यूं ही मचा शोर नहीं है। "'''''''''''''''''''''''''''''''''''''"""""""""""'''''''''''''’"""""""''''''''''''''''''''''''''''"''''''''''''''''''''''''' अग़्यार में बस यूं ही मचा शोर नहीं है बो जानते हैं सामने कमज़ोर नहीं है//1 اغیار میں بس یوں ھی مچا شور نھیں ھے۔ بو جانتیں ہیں سامنے کم زور نھیں ھے۔ कर ख़ैर ख़ुदा चैन किसी तौर नहीं है ज़ुल्मात हैं हर सिम्त कहीं भोर नहीं है//2 کر خیر خدا چین کسی طور نھیں ھے۔ ظلمات ھیں ھر سمت کھیں بھور نھیں ھے۔ महदू...
ग़ज़ल 03 जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं। जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं किसी भी तौर मिले जिससे जब करार नहीं रगो की कैद के भीतर लहू रहे न अबस इसी बजह से चखी नान दाग़दार नहीं सुरूर जीत का है लाज़िमी उन्हीं के लिये नबर्द में जो कभी थे फ़रेबकार नहीं निकल सके तो निकालूं बदन से लहजे में अक़ूबते ग़मे हस्ती है कोई खार नहीं
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