दोहे
दोहे
06अजी भरा जल नांव में लाठी की दो पोर।
फिर भी अपने साब जी नचा रहे हैं मोर।।
07
काल चक्र रहता नहीं एक जगह बस ठौर।
काली शब के बाद फिर आये उजली भोर।।
08
गूंज रहा है आह!का कोलाहल सब ओर।
फिर भी पत्थर के जिगर मारे नहीं हिलोर।।
09
मजलूमों पे जुल्म का करोगे कब तक जोर।
बस अपने तय बक़्त पर ख़त्म हुए सब दौर।।
हुजूर पूछे है धरा पूछे है आकाश।
अंधियारों के हाथ क्यों बेच दिया प्रकाश।।
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