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GHAZAL-जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं।

             ग़ज़ल                03  जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं। जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं। किसी भी तौर मिले जिससे जब करार नहीं।। रगो की कैद के भीतर लहू रहे न अबस। इसी बजह से चखी नान दाग़दार नहीं।। सुरूर जीत का है लाज़िमी उन्हीं के लिये। नबर्द में जो कभी थे फ़रेबकार नहीं।। निकल सके तो निकालूं बदन से लहजे में। अक़ूबते ग़मे हस्ती है कोई खार नहीं।।

GHAZAL-किसी का दिल दुखाके पाप कर गया यारो।

                      ग़ज़ल 02 किसी का दिल दुखाके पाप कर गया यारो। किसी का दिल दुखाके पाप कर गया यारो। मै ख़ुद ही अपनी नज़र से उतर गया यारो।। फ़िराक़ का कभी हमदर्द था जिसे समझा। बही रगो में मेरी दर्द भर गया यारो।। गले लगाना भी अपनो को दूर की है सोच। करीब जाने से भी मैं तो डर गया यारो।।

GHAZAL- कहीं पे ठहरना कहीं से गुज़रना।

               ग़ज़ल                 01 कहीं पे ठहरना कहीं से गुज़रना। कहीं पे ठहरना कहीं से गुज़रना। मगर मन्ज़िलें सब मुकम्मल ही करना।। सज़ा ख़ुदकुशी की बड़ी सख़्त पायी। गया ज़िन्दगी से हुआ ख़ाक मरना।। जमा क्या करोगे इन्हें शीशियों में। कि है ख़ुशबुओं का मुकद्दर बिखरना। इलाही बुरा क्यों लगे दुश्मनों को। सुबह शाम मेरे शहर का संवरना।। कि पामाल करके सभी बन्दिशों को। नदी को समन्दर में अब है उतरना।। https://youtu.be/4n2V1NvCIWs

RUBAI-है ताड़ रही कब से निगाहे सय्याद।

                 रूबाई - है ताड़ रही कब से निगाहे सय्याद। है ताड़ रही कब से निगाहे सय्याद। बो घोसले में फिर भी बैठी है शाद ।। रहके भी निशाने की पकड़ में बुलबुल।।। क्यों ख़ुद को समझती है चमन में आज़ाद।।।।

दोहे

                         दोहे                           06 अजी भरा जल नांव में लाठी की दो पोर। फिर भी अपने साब जी नचा रहे हैं मोर।।                           07 काल चक्र रहता नहीं एक जगह बस ठौर। काली शब के बाद फिर आये उजली भोर।।                           08 गूंज रहा है आह!का कोलाहल सब ओर। फिर भी पत्थर के जिगर मारे नहीं हिलोर।।                           09 मजलूमों पे जुल्म का करोगे कब तक जोर। बस अपने तय बक़्त पर ख़त्म हुए सब दौर।।                             10           ‌  हुजूर   पूछे   है  धरा  पूछे  है   आकाश। अंधियारों के हाथ क्यों बेच दिया प्रकाश।।                                              ‌

कुन्डालिया

                             कुन्डालिया पैदल ही जो चल दिये सर पे रख के भार। थोड़ा उनका भी जरा हुजूर करो बिचार।। हुजूर करो बिचार छोड़ बातों का लच्छा। देख देश का हाल करो अब तो कुछ  अच्छा।। फ़ाको ने इस बक़्त बनाया इनको बैकल। सड़कों पे बेहाल चल रहे हैं जो पैदल।।

DOHA

                     दोहे                            01 गली गली जन क्यों फिरें करते धन की खोज। धन की अपार चाह में कष्ट मिलें नित रोज।।                             02 कदम कदम पे बस करे अपना खूब बखान। कोई नहीं जमीन पे नेता सा इन्सान                           03 पीछे पर निंदा करें सामने में गुणगान। चापलूस ने जन्म से पायी अजब जुबान।।                            04 लाॅकडाउन में क्या किया तूने वक्त फरेब। काम धाम सब छीन कर खाली कर दी जेब।।                            05 सर गठरी का बोझ है दूर बड़ा है गाँव। पैदल चल चल धूप में जलते मेरे पाँव।।